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वे कौन हैं जो नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते हैं

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नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री पद के लिए 26 मई 2014 को शपथ लेना, स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर था। यह पहला अवसर था जब किसी गैर कांग्रेसी दल का नेतृत्व पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बना। यह वह अवसर था जब तीन दशकों से चले आ रहे गठबंधन की अवसरवादी राजनीति का अंत हुआ। यह वह मौका था जब अवसरवादी राजनीति की छत्रछाया में पल्लवित होने वाले भ्रष्टाचार का अंत हुआ। यह वह अवसर था जब सकारात्मक और सबका साथ सबका विकास की राजनीति के अच्छे दिन की शुरुआत हुई।

देश आज फिर लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है। पांच वर्षों मे देश की राजनीति में जबर्दस्त बदलाव आया है। भाजपा को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी विचारधारा के आदर्शों और महावाक्यों को त्यागकर एक ही उद्देश्य के साथ लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में कूद रहे हैं। आज गैर भाजपा राजनीतिक दलों का सिर्फ एक ही मकसद है कि नरेन्द्र मोदी को दुबारा प्रधानमंत्री न बनने दिया जाए। यह जानना जरूरी है कि पांच साल में ऐसा क्या हुआ है कि देश की जनता तो नरेन्द्र मोदी की एक बार फिर से सरकार बनाना चाहती है, लेकिन महागठबंधन के राजनीतिक दल ऐसा नहीं होने देना चाहते हैं।

महागठबंधन के राजनीतिक दल क्यों नहीं चाहते हैं

कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, जेडी(एस), एनसीपी,आम आदमी पार्टी, तेलगू देशम, नेशनल कांफ्रेस, राष्ट्रीय जनता दल मिलकर महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इनके नेता कभी दिल्ली में तो कभी कलकत्ता में मिलकर रैली करते हुए कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनने देना है, लेकिन ये यह नहीं बताते हैं कि वे देश के बारे में क्या सोचते हैं, उनके महागठबंधन की तरफ से कौन प्रधानमंत्री होगा। महागठबंधन के सभी दल देश में एक ऐसी सरकार लाना चाहते हैं जहाँ सभी अपने मनमाने तरीके से काम कर सकें जैसा कि यूपीए के दस साल और उससे पहले की जनता पार्टी की अलग-अलग सालों में बनी सरकारों के दौरान हुआ। इन्हीं गठबंधन सरकारों के कामकाज के बेढंग तरीके का परिणाम है कि किसानों की आत्महत्या, नक्सलवाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और आर्थिक बदहाली की समस्याएं इस देश में उठ खड़ी हुईं।

आज जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन समस्याओं के मूल का समाधान कर रहे हैं और उसमें सफल हैं तो इन महागठबंधन के दलों को दिक्कत हो रही है। ये सभी दल परेशान हैं कि अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी तरह से अगले पांच साल तक और काम करते रहे तो देश में इन दलों का नाम लेने वाला कोई नहीं बचेगा। ये सभी दल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

देश को लूटने वाले व्यापारी और दलाल क्यों नहीं चाहते हैं

ऐसा नहीं है कि केवल महागठबंधन के दल चिल्ला रहे हैंं कि मोदी से बचाओ बल्कि बैंकों से जनता के धन को महागठबंधन की सरकारों के दौरान लोन के रूप में लूट करने वाले व्यापारी और दलाल भी चिल्ला रहे हैं कि मोदी से बचाओ। विजय माल्या से लेकर मेहूल चौकसी जैसे हजारों करोड़ रुपये के बैंकों का लोन हजम कर जाने वाले भगोड़े व्यापारी भी विदेशों में बैठकर प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के खिलाफ देश में विरोधी माहौल बनाने के लिए बयानबाजी कर रहे हैं जबकि मोदी सरकार अपना शिकंजा इनके ऊपर कसती जा रही है।

इनकी संपत्तियां जब्त हो रही हैं, इन्हें भगोड़ा घोषित किया जा चुका है। देश के रक्षा सौदों में दलाली करने वाले भी आज जब सरकार की गिरफ्त में हैं तो प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ बयानबाजी करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।

माओवादी क्यों नहीं चाहते हैं

महागठबंधन के दलों, लूटेरे व्यापारियों व दलालों के साथ साथ माओवादी, नक्सलवादी और शहरों में शानोशौकत में रहने वाले उनके बुद्धिजीवी साथी भी चिल्ला रहे हैं कि मोदी से बचाओ। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले चार वर्षों में माओवाद के आतंक की कमर तोड़ दी है।

देश के माओवाद ग्रस्त क्षेत्रों के 44 जिलों से माओवादियों का सफाया हो चुका है। माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी-वरवरा राव, गौतम नौलखा, सुधा भरद्वाज, अरुण फरेरिया, और वरनोन गोंजालवेस को सरकार के खिलाफ आतंकी साजिश करने और सहयोग करने के लिए गिरफ्तार किया जा चुका है।

माओवादियों का सहयोग करने के लिए इन लोगों ने समाज सेवा जैसे पुनीत काम का चोला ओढ़ रखा था। इस चोले की आड़ में ये सभी धन इकट्टा करते और माओवादियों के विचारों को बुद्धिजीवी खाके में गढ़कर सरकार के विरोध का माहौल बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं। ऐसे लोगों और माओवादियों पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने नकेल कसी तो सभी चिल्लाने लगे मोदी से बचाओ।

जम्मू कश्मीर के आतंकवादी क्यों नहीं चाहते हैं

सभी जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर की समस्या भारत को स्वतंत्रता के साथ मिला एक ऐसा रोग है जिसका इलाज आसानी से नहीं मिलने वाला है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इसे भी साधने का तरीका निकाला। मोदी सरकार ने नीति बनायी कि हम आतंकवादियों की एक गोली का जवाब, गोलियों की बौझार से देगें और गोलियों की आवाजें बंद हुए बिना कोई बातचीत संभव नहीं है। इस नीति का प्रभाव हुआ कि कश्मीर के जिलों मे घुसपैठ कर आये आतंकवादियों को एक-एक कर सेना ने खत्म कर दिया।

आतंकवादियों के सहयोगी, अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके हमदर्दों को नजरबंद कर दिया, पत्थरबाजों पर नकेल कस दी। प्रधानमंत्री मोदी के इन कदमों से आतंकवादी और अलगाववादी जनता से अलग-थलग पड़ गये। अब ये सभी चाहते हैं कि किसी तरह से नरेन्द्र मोदी दोबारा देश के प्रधानमंत्री न बने।

पाकिस्तान क्यों नहीं चाहता है

महागठबंधन के दलों से लेकर आतंकवादियों के साथ-साथ पाकिस्तान भी नहीं चाहता है कि नरेन्द्र मोदी एक बार फिर भारत के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान को आतंकवाद की नीति छोड़ने के लिए दबाव बनाने की रणनीति को लागू कर दिया। इस नीति से पाकिस्तान की विश्व संस्थाओं में आतंकवादियों का साथ देने के लिए थू-थू हो रही है और वह अलग-थलग पड़ गया है।

विश्व बैंक और अन्य विकास संस्थाओं से पाकिस्तान को ऋण मिलना बंद हो गया है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है, वह कर्ज में डूबता जा रहा है। कर्ज में डूबते पाकिस्तान का साथ देने के लिए चीन भी भारी कीमत मांग रहा है, जिसे पाकिस्तान न चाहते हुए भी  ले रहा है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के साथ ऐसे आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध बनाये हैं कि चीन डोकलाम जैसे सीमा क्षेत्र के विवाद के लिए बातचीत का ही रास्ता अपना रहा है वह भी अपनी कमजोर आर्थिक हालातों के कारण भारत के साथ सीधा टक्कर नहीं लेना चाहता है। इस तरह से घिरा हुआ पाकिस्तान भी नरेन्द्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता है।

देश की जनता नरेन्द्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है, लेकिन महागठबंधन के दल, माओवादी, लूटेरे, आतंकवादी और पाकिस्तान नहीं चाहते हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव जनता बनाम देश को बरबाद करने वाली ताकतों के बीच का संघर्ष है।

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