एबीपी न्यूज के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर, एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा को चैनल ने हटा दिया है। संसद से लेकर सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। ये तीनों ही बड़े नाम हैं और अपने-अपने हिसाब से राजनीतिक दलों के एजेंडे को सूट करते रहे हैं। हालांकि ये घटनाक्रम कुछ लोगों के लिए मीडिया का आपातकाल है क्योंकि वो ‘राडिया काल’ का सुख प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं।
बहरहाल इन तीनों के जॉब जाते ही कई लोगों को इमरजेंसी की याद आने लगी है, लेकिन जब दूसरे पत्रकार गाजर मूली की तरह काटे जाते हैं, तब ऐसे लंबरदार पत्रकार चुप रहते हैं। टेलीग्राफ, हिंदुस्तान टाइम्स, एनडीटीवी, सहारा, आईबीएन-7 जैसे चैनलों-अखबारों में सैकड़ों मीडियाकर्मी निकाले गए। तब ऐसे बड़े मठाधीश पत्रकारों ने विरोध में ‘चूं’ शब्द तक नहीं बोला था। 2004 में हिंदुस्तान टाइम्स समूह में 300 लोगों की छंटनी हुई। 2013 में आईबीएन-7 में 320 पत्रकारों को एक साथ निकाल बाहर किया गया। सहारा समय में सैकड़ों पत्रकारों को हटाया जा चुका है और सिलसिला जारी है। एनडीटीवी में भी अधिकतर कैमरामैन निकाल दिए गए, कई बार बल्क में छंटनी हुई, लेकिन ये खामोश रहे।
अब कुछ लोग अभिसार और पुण्य के निकाले जाने को प्रेस की स्वतंत्रता से जोड़ रहे हैं, और कह रहे हैं कि इसलिए विरोध करना चाहिए। लेकिन क्या यही सच है। सवाल यह कि क्या ‘पुण्य’काल में प्रेस स्वतंत्र रहा है? खुद के निकाले जाने से आहत महसूस कर रहे हैं। किन्हीं को धृतराष्ट्र तो किसी को संजय बता रहे हैं, लेकिन इनकी हकीकत क्या है पहले ये देख लीजिए…
जब धृतराष्ट्र को पता चल जाए की उनका ‘संजय’ फिक्सिंग करके ‘दुर्योधन’ को कृष्ण बता रहा है और ‘कृष्ण’ को दुर्योधन, फिर सेल्फ़ प्रोक्लेम्ड ‘संजय’ की दलाली की नौकरी जानी तो तय है। ?
वो अँग्रेज़ी मे कहते हैं ना, कर्मा इज़ दी …? #ABPNews pic.twitter.com/f102E7gIow
— Sir Ravindra Jadeja (@SirJadejaaaa) 3 August 2018
ये वीडियो असाधारण इसलिए है कि क्रातिकारी पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाले दोहरे चेहरे वालों का पर्दाफाश करती है। 2015 में दिल्ली चुनाव से पहले का ये वीडियो उस डील को दिखाती है जिसमें पीपी वाजपेयी और अरविंद केरजीवाल खबरों की ‘सेटिंग’ करते हुए पकड़े गए थे। इससे यह बात साफ हो जा रही है कि दोनों के बीच डील थी। इस वीडियो में साफ है कि किस खबर को दिखाना है और किसे दबाना है, इस पर बातचीत हो रही है।
पुण्य प्रसून जी बड़े पत्रकार हैं। एक बार उनको भी ‘राजा’ बनने का मौका मिला था, जब वे सहारा समय में सर्वेसर्वा बन कर गए थे। गरीबों-किसानों और वीआईपी कल्चर के खिलाफ करते थे। लेकिन विडम्बना देखिये कि गरीब पत्रकारों के पेट पर लात मारकर करोड़ों की मोटी तनख्वाह पर ‘चमचों’ को अपने साथ लाए थे। खुद इतने बड़े वीआईपी बन गये थे कि सामने कोई खड़ा नहीं हो सकता था। उनके साथ जो हुआ वैसा ही वो दूसरों के साथ कर चुके हैं।
अब आप रविशंकर प्रसाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस का ये वीडियो देखिये… इसमें एनडीटीवी की एंकर निधि कुलपति की आवाज बैकग्राउंड से आती है कि इस मामले में कांग्रेस को डिफेंड करना है। जाहिर है जो कांग्रेस मीडिया पर हमला बता रही है उसने तो अपने शासन काल में मीडिया घरानों को ही खरीद रखा था।
सवाल उठता है कि जो लोग ये कह रहे हैं कि ये प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है, वे यह बताएं कि ऐसे क्रांतिकारियों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए?
जाहिर है प्रेस की स्वतंत्रता की आड़ लेकर अपना एजेंडा सेट करने वाले ऐसे पत्रकारों को एबीपी ने ठीक उसी तरह निकाला है जैसे कटौती का बहाना मारकर अन्य हजारों पत्रकारों को सड़क पर ला दिया गया था।
जो लोग अपनी बिरादरी के लोगों की नौकरी नहीं बचा सकते, उनके साथ गलत को गलत नहीं बोल सकते, उनको दूसरों को गलत कहने का ढोंग करना कहां तक जायज है?
बहरहाल सरकार से सवाल पूछना और मोदी विरोधी ‘एकसूत्रीय कार्यक्रम’ चलाने में अंतर है। ये क्रिया की प्रतक्रिया है। खुद को सेक्यूलर कहने वाले पत्रकार गाय, गायत्री और गीता का मजाक बनाते रह गए और उन्हें पता ही न चल पाया कि कब पत्रकार बिरादही का ही बहुसंख्यक वर्ग उनसे घृणा करता चला गया। कश्मीरी पंडितों से सहानुभूति नहीं रखने वालों ने अखलाक पर खूब आंसू बहाए, तो इनका कच्चा चिट्ठा भी खुलता चला गया।
समाज के लोग और खुद पत्रकार बिरादरी के 95 प्रतिशत लोगों को आज इन मठाधीश पत्रकारों से इतनी घृणा क्यों है, यह आत्मावलोकन का विषय होना चाहिए खेद का नहीं।