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नेहरू के फैसले जो आजाद भारत के नासूर बन गए

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जम्मू-कश्मीर को लेकर आज जो स्थिति है वह देश के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू के गलत फैसलों के वजह से पैदा हुई हैं।दरअसल, नेहरू ने कई ऐसे फैसले लिए, जो वक्त के साथ नासूर बन गए और जिनका दर्द अब भी हिन्दुस्तान का जनमानस झेल रहा है। आइए, एक नजर डालते हैं जवाहरलाल नेहरू के कुछ ऐसे ही फैसलों पर। 

आज जो परेशानियां देश के सामने हैं, उनमें से अधिकांश पंडित नेहरू के समय की ही हैं। अगर कश्मीर की बात करें, तो कश्मीर के महाराजा ने बिना किसी शर्त के अपनी रियासत का भारत में विलय का प्रस्ताव दे दिया था, लेकिन नेहरू ने उस प्रस्ताव पर शेख अब्दुल्ला की सहमति को अनिवार्य बता दिया। धारा 370 और अन्य शर्तें कश्मीर मुद्दे पर नेहरू और शेख की बैठकों के बाद जोड़ी गईं। इस फैसले का असर यह हुआ कि भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी कश्मीर में शेष भारत के प्रति एक तरह का अलगाव पैदा हो गया। आजादी के समय भारत में करीब 600 से अधिक रियासतों के विलय के लिए कुछ नियम बनाए गए थे। करीब दर्जन भर रियासतों को छोड़कर सभी का विलय तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल की मंशा के अनुसार भारत में हो गया था। कश्मीर रियासत का मामला नेहरू ने अपने पास रख लिया, जबकि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता था। कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू के कई फैसलों ने कश्मीर का मामले को और ज्यादा उलझा दिया।

नेहरू खुद कश्मीर का मुद्दा यूएन में लेकर चले गये, जहां इस बात का फायदा पाकिस्तान को मिला और आज भी यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में अटका हुआ है और हर साल इस पर बातचीत होती है। इतना ही नहीं, हर बार संयुक्त राष्ट्र में भारत को इस मुद्दे पर शर्मिंदा भी होना पड़ता है और यह मुद्दा अभी तक शांत नहीं हो पाया है।

तीसरे विश्वयुद्ध के बाद जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ तो विश्वयुद्ध में जापान के खिलाफ चीन के योगदान को देखते हुए सोवियत संघ द्वारा उसको स्थायी सदस्यता दिलाने की बात कही जाने लगी। उस समय अमेरिका माओत्सेतुंग के कम्युनिस्ट चीन के खिलाफ था और उसकी जगह च्यांग काइ शेक के फारमोसा, जो अब ताइवान है, उसे सदस्य बना दिया। अमेरिका कम्युनिस्ट चीन की बजाय 1950 में प्रजातांत्रिक भारत को स्थायी सदस्य बनाना चाहता था लेकिन, जवाहर लाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके पीछे उनके द्वारा यह तर्क दिया गया कि भारत को अगर चीन की जगह स्थायी सदस्य बनाया जाता है तो इससे इस क्षेत्र में एक प्रतिस्पर्धा का माहौल बन जाएगा, जो कि शांति के लिए घातक साबित होगा। भारत का सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट को ठुकराना इतिहास की बड़ी भूलों में गिना जाता है। भारत को ना जाने कितनी बार इसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुंह की खानी पड़ी है। जिस चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट दिलाने के लिए भारत ने 25 वर्षों तक उसका साथ दिया, वही चीन अब तक कुल 4 बार भारत द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने की कोशिशों में अड़ंगा लगा चुका है।

दरअसल, नेहरू चीन की समाजवादी नीतियों से काफी प्रभावित थे, और चीन के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वकालत करते थे। उन्होंने भारतीयों और चीनियों के बीच एक सकारात्मक संवाद स्थापित करने के लिए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा भी दिया, लेकिन बदले में चीन ने वर्ष 1962 में भारत पर युद्ध थोप दिया। चीन ने भारत की नाक के नीचे से तिब्बत को भी हड़प लिया और आज वह भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर अवैध रूप से कब्जा किए बैठा है। इतना ही नहीं, भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश पर भी चीन अपना दावा जताता रहा है। यदि आज भारत के पास सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट होती तो अब तक शायद कश्मीर मुद्दे का हल हो चुका होता। साथ ही, भारत मसूद अजहर जैसे आतंकियों पर भी नकेल कस चुका होता।

कहते हैं, भीम राव आंबेडकर ने नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था– जवाहर लाल नेहरू चीन के लिए कैंपेन कर रहे है, समझना मुश्किल है कि वो भारत के लिए काम करते हैं या चीन के लिए। भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी मेम्बर बनने का न्योता मिला पर नेहरू चीन के लिए कैंपेन कर रहे हैं।

वर्ष 1948 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ तो भारतीय सेना पाकिस्तानियों को खदेड़ने में सफल रही थी और भारतीय सेना ने बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया था। इतना ही नहीं, युद्ध में पाकिस्तान को करारी हार मिली थी और बलूचिस्तान के सभी कबायली समूहों की संसद (जिरगा) ने प्रस्ताव पास किया था कि वे भारत के साथ रहना चाहते हैं, लेकिन तभी अचानक पंडित नेहरू ने सीजफायर का एलान कर दिया, क्योंकि वे शांति का माहौल चाहते थे।    

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