Home विपक्ष विशेष गैर कांग्रेसवाद और समाजवादी सियासत को ठेंगा दिखा रहे शरद यादव

गैर कांग्रेसवाद और समाजवादी सियासत को ठेंगा दिखा रहे शरद यादव

'परजीवी' बनकर ही सियासी सफर पर बढ़ते रहेंगे शरद यादव, रिपोर्ट

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‘Parasite’…बायोलॉजी में एक शब्द है। इसका मतलब होता है परजीवी। वो जीव जो दूसरों के संसाधनों पर आधारित जीवन जीता हो वो परजीवी कहलाता है। शरद यादव का राजनीतिक जीवन भी कुछ ऐसा ही रहा है। कभी मुलायम सिंह के कन्धों के सहारे तो कभी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के कन्धों के सहारे इनका राजनीतिक सफर आगे बढ़ता रहा है। लेकिन अब वो जो कर रहे हैं वह समाजवाद तो नहींं है। कम से कम राममनोहर लोहिया ने जिस समाजवाद की परिकल्पना की थी वो तो नहीं है। दरअसल गैर कांग्रेसवाद की बुनियाद पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने वाले शरद अब उसी कांग्रेस के आगे नतमस्तक हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि जिस कांग्रेस को देश की जनता ने बार-बार नकारा है उसे शरद यादव ने क्यों स्वीकारा है?

सियासत के पिटे मोहरे हैं शरद यादव
जबलपुर से पहली बार चुनाव जीते तो सही लेकिन जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। लोगों की नाराजगी के बीच उन्हें पैतृक राज्य छोड़ना पड़ा। उत्त रप्रदेश के बदायूं से चुनाव जीते तो वहां भी उन्होंने वही किया। लिहाजा जब लोगों के कोपभाजन बने तो बंदायूं छोड़कर भाग खड़े हुए। फिर बिहार पहुंचे और लालू यादव को पकड़ा, मधेपुरा से चुनाव लड़े और जीते। लेकिन यह जीत लालू यादव की थी न कि शरद यादव की। बाद में वे जेडीयू में शामिल हो गए और अब राज्यसभा में हैं। स्पष्ट है कि शरद यादव का पूरा राजनीतिक जीवन पलायनवाद और मौकापरस्ती का नमूना है।

नीतीश से इसलिए नाराज हैं शरद
दरअसल शरद यादव के राजनीतिक जीवन को देखें तो एक बात साफ है कि कमिटमेंट शब्द से शरद जी का कोई वास्ता नहीं। इनके राजनैतिक कार्यकलाप बताते हैं कि वे इसके अर्थ भी शायद ही समझते हों। इसका उदाहरण है नीतीश कुमार से उनका नाराज होना। नीतीश कुमार ने जब भ्रष्ट लालू प्रसाद एंड परिवार खिलाफ लड़ाई शुरू की और साथ छोड़ा तो शरद यादव को झटका लगा। ऐसा माना जाता है कि समाजवाद से इतर उन्हें ‘यादववाद’ से प्रेम था सो अलग हो गए।  लेकिन यही सच नहीं है। दरअसल ऐसी खबरें हैं कि ये समाजवादी नेता अपने पुत्र को बिहार से सांसद बनाना चाहते हैं। नीतीश कुमार ने इस पर हां नहीं कहा, लेकिन लालू प्रसाद ने सियासी दांव के तहत हां कह दी। बस क्या था शरद यादव ने झट से पाला बदला और लालू और कांग्रेस की चरणों में गिर पड़े।

सांझी विरासत का सियासी मंच
महागठबंधन टूटने से परेशान शरद यादव ने नीतीश के खिलाफ मोर्चा तो खोल दिया है लेकिन इस क्रम में वे कांग्रेस के मोहरे बन गए हैं। हालांकि उनके सांझी विरासत के सियासी मंच पर चूक चुके कई दलों के राजनीतिक दिग्गज मौजूद थे, लेकिन कांग्रेस के नेताओं की लंबी फेहरिस्त यह बताने को काफी है कि शरद यादव का गैर कांग्रेसवाद और समाजवाद ढकोसला था। शरद के सम्मेलन में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, गुलाम नबी आजाद, सीताराम येचुरी, फारुक अब्दुल्ला, रामगोपाल यादव, तारिक अनवर, प्रकाश अंबेडकर, टीएमसी सांसद सुखेंदु शेखर राय, जयंत चौधरी समेत विपक्ष के कई नेता शामिल हुए।

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कांग्रेस की बैशाखी ढूंढ रहे शरद
शरद यादव के सम्मेलन में सबसे ज्यादा कांग्रेसी नेता शामिल हुए। इससे साफ है कि उन्हें कांग्रेस से काफी उम्मीदें हैं। लेकिन कांग्रेस के पैरों तले से पहले ही सियासी जमीन खिसकती जा रही है। आज की तारीख में कांग्रेस के पास उत्तर भारत में पंजाब और हिमाचल प्रदेश के सिवा कोई राज्य नहीं बचा है, जहां वो सत्ता में हो। सवाल है कि जो कांग्रेस अपनी सियासी जमीन बचाने में खुद नाकाम है, वो शरद की सियासी जमीन मजबूत करने में कितनी सफल होगी?

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सपा का सहारा, आधा-अधूरा
अगड़ी-पिछड़ी का रट लगाते रहे शरद यादव को दूसरी सबसे बड़ी उम्मीद समाजवादी पार्टी से है। इस सम्मेलन में एसपी के महासचिव रामगोपाल यादव सम्मेलन में शामिल हुए तो जरूर लेकिन यह तथ्य है कि सपा में खुद ही संग्राम चल रहा है। अखिलेश-मुलायम की राहें जुदा हैं और इसी कारण यूपी में इतनी करारी हार मिली। पार्टी 232 विधायकों से घटकर पचास के नीचे आ गई। जाहिर है जहां सपा अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है तो वो शरद के लिए क्या कर पाएगी?

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वामपंथ के आसरे कितना चढ़ेंगे शरद?
पश्चिम बंगाल से सत्ता गंवाने के बाद वामपंथी दलों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में वामदल शरद यादव की सियासी जमीन कितनी मजबूत करेंगे, ये महत्वपूर्ण सवाल है। वैसे भी वामपंथी दलों का जिन राज्यों में आधार बचा भी है वहां शरद का अपना कोई आधार नहीं है।

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वजूद बचाने में जुटी बीएसपी से कैसी उम्मीद?
शरद यादव अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए बीएसपी से उम्मीद लगा रहे हैं लेकिन मौजूदा दौर में बीएसपी खुद ही इतनी कमजोर हो चुकी है कि आज लोकसभा में उसका एक भी सांसद नहीं है। यूपी में 2012 के बाद से लगातार बीएसपी चुनाव हारती आ रही है और 2014 और 2017 में तो उसे बुरी तरह मात मिली है। जाहिर है शरद की आस यहां भी पूरी नहीं होगी।

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जिनका कोई नहीं, उनसे भी आस
शरद यादव इन पार्टियों के अलावा छोटे छोटे सियासी दलों से भी अपनी सियासी राह मजबूत करने की उम्मीदें पाले हैं। इसीलिए उन्होंने अपने कार्यक्रम में प्रकाश अंबेडकर की पार्टी भारिपा बहुजन महासंघ, आरएलडी और एनसीपी को भी बुलाया। लेकिन ये राजनीतिक पार्टियां खुद ही संघर्ष कर रही हैं, तो ऐसे में शरद के सियासी करियर को ये कितनी संजीवनी दे सकेंगी?

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भ्रष्ट लालू यादव से शरद को उम्मीद
नीतीश से अदावत में लालू यादव ने शरद यादव को हाथों हाथ लिया है। दरअसल नीतीश का बीजेपी से हाथ मिलाने से मुस्लिम और यादव मतदाताओं में नाराजगी बढ़ी है। ऐसे में लालू और शरद अगर एक-दूसरे के साथ आते हैं तो दोनों की राजनीतिक जमीन मजबूत हो सकती है। लेकिन यह साफ है कि शरद यादव दूसरों के भरोसे ही अपनी सियासी पारी खेलने की तैयारी में हैं, यानि एक बार फिर परजीवी ही रहेंगे शरद। यही नहीं इस दौरान भ्रष्ट लालू का साथ देकर समाजवाद को भी ठेंगा दिखाते रहेंगे!

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