Home विचार विपक्षी एकता के मंसूबे को शरद पवार ने दिखाया आईना, जानिये क्यों…

विपक्षी एकता के मंसूबे को शरद पवार ने दिखाया आईना, जानिये क्यों…

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”लोकसभा चुनाव में तीसरा मोर्चा या महागठबंधन व्‍यवहारिक नहीं’’…एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार का यह बयान ऐसे वक्त पर आया है जब महागठबंधन बनाने और तीसरे मोर्चे की कवायद को लेकर तमाम कयास लगाए जा रहे हैं।

हाल में ही जेडीएस प्रमुख एचडी देवगौड़ा ने तीसरे मोर्चे बनाने पर जोर दिया है। इससे पहले तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और तेलंगाना राष्ट्र समिति प्रमुख के चंद्रशेखर राव ने मुलाकात कर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद शुरू की थी।

दरअसल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस के बीच खींचतान को लेकर पूर्व पीएम और जेडीएस प्रमुख एच डी देवगौड़ा ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय पार्टियों को हल्के में ना ले।

उन्होंने कहा था कि छह विपक्षी पार्टियों के नेता मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे जो निश्चित तौर पर विपक्ष की एकजुटता को दर्शाता है, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी सभी एकजुट होकर चुनाव लड़ें।

जाहिर है प्रस्तावित महागठबंधन या तीसरे मोर्चे के इन दोनों नेताओं के इनकार के बाद विपक्षी एकता के मंसूबे चकनाचूर होते दिख रहे हैं। यह भी साफ है कि कांग्रेस की स्थिति अब ऐसी नहीं है कि वह सभी राज्यों में भाजपा से मुकाबला कर सके। शरद पवार के बयान के बाद सोशल मीडिया में भी इस पर ढेर सारी प्रतिक्रियाएं आने लगी हैं।

दरअसल शरद पवार का यह बयान काफी गंभीर है। उन्होंने तथ्यों के आधार पर ही अपनी बात सामने रखी है। सभी जानते हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस को इतने वोट नहीं मिलेंगे कि भाजपा के बराबर भी आ पाए। दूसरी बात यह है कि भाजपा के साथ भी अनेक क्षेत्रीय दल हैं। जाहिर है भाजपा कांग्रेस की ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रीय दलों के लिए भी चुनौती है।

बड़ी बात यह भी कि कांग्रेस को कोई भी क्षेत्रीय दल अधिक तवज्जो देने के मूड में नहीं हैं। यूपी में बसपा, जिसकी वर्तमान में जीरो सीटें हैं सबसे ज्यादा 35 सीटें चाहती है,, सपा 36 सीटें चाहती है और यह दोनों कांग्रेस को सिर्फ 2 सीटें ही देना चाहती हैं।

2019 में सत्ता-परिवर्तन की कोई सूरत इसलिए भी नजर नहीं आ रही क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आगे मुकाबले का कोई नेतृत्व भी नहीं दिख रहा है। राहुल वाली कांग्रेस किसी विपक्षी दल को नेतृत्व के लिए स्वीकार्य होगा, ऐसा होता लग नहीं रहा है।

भारत की वर्तमान राजनीति अजीब तरह के कशमकश से गुजर रही है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं, जो ‘सबका साथ-सबका विकास’ की नीति पर चल रहे हैं। वहीं दूसरी ओर विपक्ष है, जो सिर्फ और सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति पर आगे बढ़ रहा है। नकारात्मक राजनीति की डोर पकड़े विरोधी दल पूरी सिद्दत से इस कोशिश में लगे हैं कि 2019 में वे पुन: प्रधानमंत्री नहीं बन सकें।

इसी क्रम में 23 मई को बेंगलुरू में विरोधी दलों के नेताओं का एक मंच पर जुटान हुआ था। इस दौरान 19 राजनीतिक दलों के नेता एक दूसरे का हाथ थामे भी नजर आए। दरअसल इन चेहरों को देखें तो कमोबेश वही हैं जिनका एजेंडा ही मोदी विरोध का है। हालांकि कुमारस्वामी के कर्नाटक का सीएम पद की शपथ लेने के दौरान सजा यह मंच अपनी ताकत के लिए कम, बल्कि अतर्विरोध और अवसरवादी राजनीति के लिहाज से अधिक चर्चा में रहा।

कुमारस्वामी के मंच पर ही सामने आ गया अंतर्विरोध
कुमारस्वामी के मंच पर कभी कांग्रेस के धुर विरोधी रहे अरविंद केजरीवाल, मायावती और सीताराम येचुरी जैसे नेताओं का आना बड़े अंतर्विरोध कि कहानी कहता है। दरअसल इसी मंच पर जहां ममता बनर्जी और लेफ्ट नेताओं ने दूरी बनाए रखी, वहीं शरद पवार ने राहुल गांधी से मुलाकात तक नहीं की। अखिलेश यादव और मायावती के बीच दूरी तो कम थी, लेकिन दोनों सहज नहीं थे। अरविंद केजरीवाल तो मंच पर कहीं नजर भी नहीं आए। वहीं मंच पर मौजूद अन्य बड़े नेताओं ने राहुल गांधी को कोई भाव नहीं दिया।

क्षेत्रीय दलों का लगातार सिमटता जा रहा जनाधार
वाम दल, एनसीपी, टीएमसी, एसपी, बीएसपी, आरजेडी जैसी तमाम विपक्षी पार्टियां कभी देश की सत्ता की चाबी हुआ करती थीं। इनमें कई ऐसे दल थे जो किंगमेकर की तरह व्यवहार भी करते थे। हालांकि अब परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। प्रधानंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी और एनडीए ने देश के हर चुनाव में लगातार जीत हासिल की है, फलस्वरूप 19  राज्यों में बीजेपी और एनडीए की सरकार है। देश के 72 प्रतिशत भू-भाग पर एनडीए का शासन है। ऐसे में मंच पर मौजूद कई दलों की मौजूदगी दिखने में तो भारी-भरकम लग रही है, लेकिन हकीकत ये है कि ये दल अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में भी जनाधार खो चुके हैं।  

19 दलों के गठबंधन में प्रधानमंत्री पद के 11 उम्मीदवार
विपक्षी दल भानुमती के कुनबे की तरह हैं। यहां हर किसी का लक्ष्य अलग है, मकसद अलग और विचारों में एकरूपता नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह कि अधिकतर दल के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान रहा है। राहुल गांधी खुद को पहले ही पीएम पद के लिए खुद के नाम का एलान कर चुके हैं, वहीं शरद पवार और ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षाएं भी जगजाहिर हैं। खबरें तो ये हैं कि मंचासीन हुए 19 में से 11 दलों के शीर्ष नेताओं ने 2019 में गठबंधन की सरकार बनने की सूरत में खुद को पीएम पद के तौर पर पेश करने के लिए भी कमर कस ली है। जाहिर है सामूहिक तौर पर प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देने से पहले ये लोग खुद ही एक दूसरे के लिए चुनौती बने हुए हैं।

राहुल गांधी के नेतृत्व पर गठबंधन दलों को नहीं है एतबार
ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू जैसे दिग्गज नेताओं ने विपक्ष के नेता के रूप में राहुल की भूमिका को पूरी तरह से नकार दिया है। क्षेत्रीय दलों के इन नेताओं के रूख से स्पष्ट है कि राहुल गांधी 2019 की लड़ाई में अलग-थलग पड़े दिखाई देंगे। जाहिर है पीएम मोदी से मुकाबला करने के लिए विपक्षी दल जो मोर्चा बनाने की कवायद में जुटे हैं, उसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं होने जा रही है।

गठबंधन की अगुआई को लेकर आपस में ही मची है रार
विपक्षी दलों के नेताओं के बीच यह भी एक बड़ा सवाल है कि उनकी अगुआई कौन करेगा? 2019 के लोकसभा चुनावों में यूपी में महागठबंधन को लेकर मुलायम सिंह यादव ने स्पष्ट कहा है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हैसियत सिर्फ दो सीटों की है। इसी तरह ममता बनर्जी ने कहा है कि वह राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ना चाहतीं। शरद पवार ने भी कहा है कि पीएम पद को लेकर अभी से कोई बात नहीं की जाएगी। जाहिर है ये सभी नेता अपनी ओर से यही संदेश देना चाहते हैं कि 2019 के चुनाव को लेकर अगर कोई गठबंधन अस्तित्व में आएगा तो, इसकी अगुआई कांग्रेस पार्टी नहीं करेगी। संदेश यह भी कि ये नेता खुद को इस गठबंधन की अगुआई के दावेदार भी बता रहे हैं।

प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अगले कदम का इंतजार
क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से बड़ी ताकत माने जाने वाले – नवीन पटनायक, के चंद्रशेखर राव और एम के स्टालिन जैसे कद्दावर नेताओं ने इस मंच से दूरी बनाए रखी। ये तीनों की नेता अपने क्षेत्रों में बेहद ही मजबूत हैं। थर्ड फ्रंट बनाने में वो ही पार्टियां दिलचस्पी दिखा रही हैं, जो बीजेपी की तरह ही कांग्रेस को भी अपना दुश्मन मानती हैं।

जाहिर है कि कई राज्यों में कांग्रेस ही क्षेत्रीय दलों की मुख्य प्रतिद्वंदी है। यानि केंद्र की राजनीति के लिए लिए बीजेपी का विरोध और राज्य की सियासत के लिए कांग्रेस का विरोध इनके लिए जरूरी है। थर्ड फ्रंट के लिए एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी से मिल चुके हैं, वहीं चंद्रशेखर राव भी ममता से मुलाकात कर चुके हैं। एनडीए से अलग हुए चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी भी थर्ड फ्रंट की तरफ जा सकती है।   

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