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राहुल के नाम पर एकजुटता की मुहिम को झटका, प्रधानमंत्री बनने का सपना सिर्फ सपना ही न रह जाए

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अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी विपक्ष को एकजुट करने की कवायद में जुटी है, लेकिन लगता है राहुल गांधी का प्रधानमंत्री बनने का सपना सिर्फ सपना ही न रह जाए। राहुल के नाम पर विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशों पर हर बार पलीता लग जाता है। सोमवार 16 जुलाई को बहुजन समाज पार्टी के एक नेता ने साफ कहा कि राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। लखनऊ में आयोजित पार्टी की बैठक में जय प्रकाश सिंह ने कहा कि राहुल गांधी अपनी मां सोनिया गांधी के पदचिन्हों पर चल रहे हैं जो कि एक विदेशी हैं इसलिए वह कभी भी भारतीय राजनीति में सफल नहीं हो सकते। उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा वक्त की मांग है कि मायावती प्रधानमंत्री बनें। हालांकि मायवती ने तुरंत कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी के पद से हटाने की घोषणा कर दी। इसके बावजूद इससे विपक्षी एकता की कोशिशों को झटका जरूर लगा है। 

राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने से ममता का इनकार
इसके पहले तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कह दिया था कि उन्हें किसी भी सूरत में राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एक निजी टीवी चैनल के कार्यक्रम में ममता बनर्जी ने कहा कि वह राहुल की अगुवाई में काम नहीं कर सकती हैं। उन्होंने कहा कि वह बीजेपी के खिलाफ एक फेडरल फ्रंट बनाने की कोशिश में जुटी हैं, इस फ्रंट में कोई भी दल छोटा या बड़ा नहीं होगा, बल्कि सभी की बराबर भागीदारी होगी।

यह सिर्फ ममता बनर्जी की ही बात नहीं, शरद यादव, नवीन पटनायक, वाम दलों के नेता, मायावती जैसे नेता भी राहुल की अगुवाई में कोई मोर्चा बनाने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। 

ममता की फेडरल फ्रंट की कवायद 
बीजेपी विरोधी फ्रंट बनाने की कोशिशों के बीच कई विपक्षी पार्टियां ऐसी हैं जो फेडरल फ्रंट की संभावनाएं भी तलाश रही हैं। फेडरल फ्रंट बनाने में वो ही पार्टियां दिलचस्पी दिखा रही हैं, जो बीजेपी को अपना तो दुश्मन मानती हैं लेकिन कांग्रेस के बैनर तले आना नहीं चाहती हैं। टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी फेडरल फ्रंट बनाने की कोशिशों में सबसे आगे हैं। जाहिर है कि कई राज्यों में कांग्रेस ही क्षेत्रीय दलों की मुख्य प्रतिद्वंदी है। यानी केंद्र की राजनीति के लिए लिए बीजेपी का विरोध और राज्य की सियासत के लिए कांग्रेस का विरोध इनके लिए जरूरी है। एनसीपी के शरद यादव, टीएमसी की ममता बनर्जी और टीआरएस के नेता चंद्रशेकर राव फेडरल फ्रंट बनाने में जुटे हैं।  अगर इन दलों के साथ कुछ और पार्टियां भी जुड़ गईं और फेडरल फ्रंट बन गया तो फिर विपक्षी एकता का क्या होगा? 

राहुल की अगुवाई में विपक्षी क्षत्रपों का जुटना मुश्किल
यूपीए सरकार के कार्यकाल में सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष थीं और यूपीए की चेयरपर्सन भी। सोनिया के नेतृत्व में विपक्षी दलों के एक साथ आने में नेताओं का स्वाभिमान आड़े नहीं आता था, क्योंकि एक-दो को छोड़कर ज्यादातर विपक्षी नेता उनसे उम्र और अनुभव में छोटे थे। जब से राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने हैं, विपक्षी दलों के कद्दावार नेताओं को राहुल की अगुवाई में एक साथ आने में दिक्कत हो रही है। जाहिर है राहुल को कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है, न ही देश के अहम मुद्दों पर उनकी कोई स्पष्ट राय है। अपने बयानों से मजाक का पात्र बनने वाले राहुल गांधी के नीचे काम करना इन नेताओं को मंजूर नहीं है। यही वजह है कि समय-समय पर सोनिया गांधी विपक्षी नेताओं की बैठकों को बुलाती रही हैं। विपक्षी नेताओं के सामने मुश्किल है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते उन्हें कभी न कभी राहुल के साथ करना पड़ेगा और इसके लिए वो तैयार नहीं है।

2019 में विपक्षी मोर्चा बना भी तो उसमें राहुल की भूमिका नगण्य होगी
भाजपा से मुकाबला करने के लिए विपक्षी दल जो मोर्चा बनाने की कवायद में जुटे हैं, उसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं होगी। ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, चंद्रशेखर राव जैसे दिग्गज नेताओं ने विपक्ष के नेता के रूप में राहुल की भूमिका को पूरी तरह से नकार दिया है। क्षेत्रीय दलों के इन नेताओं के रूख से स्पष्ट है कि राहुल गांधी 2019 की लड़ाई में अलग-थलग पड़े दिखाई देंगे। अपना अस्तित्व बचाने के लिए कर्नाटक में 37 सीटों वाली जेडीएस के सामने जिस तरह कांग्रेस ने घुटने टेके हैं, 2019 में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने को मिले, तो कोई अचंभा नहीं होना चाहिए।

विपक्ष की अगुवाई को लेकर मची है मार
विपक्षी दलों के नेताओं के बीच यह भी एक बड़ा सवाल है कि उनकी अगुवाई कौन करेगा? राहुल गांधी अगुवाई इन्हें स्वीकार नहीं, सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुकी हैं, ऐसे में विपक्षी दलों के नेताओं के सामने नेतृत्व का धर्मसंकट पैदा हो गया है। कुछ दिनों पहले टीएमसी के नेताओं ने कहा था कि विपक्ष की अगुवाई वही नेता करे, जिसे प्रशासनिक अनुभव हो और वरिष्ठ भी हो। यानी उनका मतलब साफ था कि राहुल गांधी तो कम से कम विपक्ष की अगुवाई के लिए काबिल नहीं है। शरद पवार, ममता बनर्जी, सीताराम येचुरी, नवीन पटनायक, चंद्रशेखर राव सरीखे नेता दशकों से राजनीति में हैं, इनकी अपने-अपने राज्यों में जनता पर पकड़ भी है, लेकिन एक दूसरे के तहत काम करने को कोई राजी नहीं है। मतलब साफ है कि विपक्ष में नेतृत्व कौन करेगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

2019 से पहले राहुल ब्रांड को लगा बड़ा झटका
राहुल को अध्यक्ष बनाने के बाद कांग्रेस पार्टी 2019 के चुनाव के पहले उन्हें एक बड़ा नेता बनाने में लगी है। कांग्रेस की कोशिश थी कि कर्नाटक की सत्ता में वापसी कर वह राहुल गांधी ब्रांड को मजबूत करने में सफल होगी। इसीलिए चुनाव प्रचार के दौरान राहुल ने खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया था, लेकिन जो चुनाव परिणाम आए, उससे सबसे अधिक नुकसान राहुल ब्रांड को हुआ है। इससे जहां राहुल ब्रांड को झटका लगा, वहीं 2019 के चुनाव से पहले विपक्षी गठबंधन में राहुल गांधी का कद भी घटा। 

अब सिर्फ पंजाब, मिजोरम और पुडुचेरी में बची है कांग्रेस
कर्नाटक में हार के साथ ही कांग्रेस पार्टी का दायरा अब सिर्फ तीन राज्यों पंजाब, पुडुचेरी और मिजोरम तक ही सिमट कर रह गया है। पुडुचेरी एक केंद्र शासित प्रदेश है और बहुत ही छोटा राज्य है। मिजोरम भी पूर्वोत्तर का एक छोटा राज्य है और यहां इस साल के अंत में चुनाव होने हैं, जिस प्रकार से पूर्वोत्तर में भाजपा का परचम लहरा रहा है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि चुनाव के बाद कांग्रेस का यह किला भी ढह जाएगा। पंजाब की बात करें तो यहां की सरकार बनने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कोई योगदान नहीं था। पंजाब में सीएम अमरिंदर सिंह की सरकार और राज्य की जनता ने कांग्रेस को नहीं बल्कि अमरिंदर सिंह वोट दिया था।

19 दलों के गठबंधन में प्रधानमंत्री पद के 11 उम्मीदवार
विपक्षी दल भानुमती के कुनबे की तरह हैं। यहां हर किसी का लक्ष्य अलग है, मकसद अलग और विचारों में एकरूपता नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह कि अधिकतर दल के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान रहा है। राहुल गांधी खुद को पहले ही पीएम पद के लिए खुद के नाम का एलान कर चुके हैं, वहीं शरद पवार और ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षाएं भी जगजाहिर हैं। खबरें तो ये हैं कि 19 में से 11 दलों के शीर्ष नेताओं ने 2019 में गठबंधन की सरकार बनने की सूरत में खुद को पीएम पद के तौर पर पेश करने के लिए भी कमर कस ली है।

पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद सिमट गए क्षेत्रीय दल
देश में कांग्रेस पार्टी, वाम दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी तमाम विपक्षी पार्टियां, जो पहले कभी देश की सत्ता का केंद्र हुआ करती थीं। आज इन दलों को कोई पूछने वाला नहीं है। 2014 के बाद जिस तरह से ज्यादातर राज्यों में बीजेपी और एनडीए की सरकारें बनती जा रही हैं उसके फलस्वरूप इनमें से कई दल अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों तक ही सीमित हो कर रह गए हैं। और तो और कुछ दलों की अपने राज्यों में भी पकड़ ढीली हो चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि हांफते-कराहते ये क्षेत्रीय दल क्या प्रधानमंत्री मोदी और बीजपी के लिए चुनौती बन पाएंगे?

बीजेपी के सामने विपक्षी दलों की हालत पतली
2014 में जब पीएम मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब एनडीए की कुल 7 राज्यों में सरकार थी और उनमें से 4 मुख्यमंत्री बीजेपी के थे। आज 21 राज्यों में एनडीए की सरकार है और 15 राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्री है। बीजेपी और सहयोगी दलों की देश के 75 प्रतिशत भू-भाग सत्ता है और 68 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पर एनडीए की राज्य सरकारों का शासन है। यह आंकड़े साबित करने के लिए काफी हैं कि देश में किस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ रही है। यही लोकप्रियता कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों की चिंता का सबब बनी हुई है। विपक्षी दल पीएम मोदी के करिश्माई नेतृत्व के सामने हताशा की मुद्रा में हैं।

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