Home विपक्ष विशेष कांग्रेस की हार का संकेत है प्रियंका का आना

कांग्रेस की हार का संकेत है प्रियंका का आना

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आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने कई चुनौतियां हैं। उनमें सबसे बड़ी और प्रमुख चुनौती है कांग्रेस का सिमटता हुआ जनाधार है। उत्तर प्रदेश और बिहार ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस पिछले तीन दशकों से सत्ता से दूर है। इस चुनौती का हल सिर्फ और सिर्फ जमीन से जुड़ा हुआ कोई कांग्रेसी नेता ही कर सकता है। नेतृत्व के अभाव से जूझ रही कांग्रेस ने अपने आखिरी दांव के रूप में नेता प्रियंका वाड्रा गांधी को राजनीति के मैदान में उतार दिया है। चुनावी बाजी में कांग्रेस की इस आखिरी चाल का असर कांग्रेस पार्टी और महागठबंधन की राजनीति पर क्या पड़ेगा, इसको समझने में सभी की  दिलचस्पी बढ़ गई है।

प्रियंका से कांग्रेस कमजोर होगी
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका वाड्रा गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाने के साथ ही लोकसभा चुनाव के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी भी नियुक्त कर दिया। इससे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को खुश होने का मौका मिला है। क्योंकि राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष तो हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं के दिलों में उनकी छवि एक परिपक्व नेता की नहीं है। प्रियंका वाड्रा के आने से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं समेत सभी को अहसास हो चुका है कि राजनीति में राहुल कच्चे हैं और वह बुरी तरह से फेल हो रहे हैं। अब कांग्रेस के पास दो चेहरे हैं। राहुल गांधी कांग्रेस के ऐसे चेहरे हैं जिसे कार्यकर्ता पसंद नहीं करता है। दूसरा चेहरा प्रियंका का है, जिसे कार्यकर्ता पसंद करता है, लेकिन प्रियंका को राहुल गांधी ने महासचिव का पद देकर अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मार ली है। अब राहुल नेतृत्व का किसी के लिए खास मतलब नहीं रह जाएगा। कांग्रेसी, प्रियंका के पीछे भागेंगे और प्रियंका राहुल गांधी के पीछे रहेंगी। इन हालातों में कांग्रेस कमजोर होगी। 

महागठबंधन की राजनीति में दरार
कांग्रेस जिस तरह से चुनाव में महागठबंधन की बैसाखी को लेकर आगे बढ़ रही थी, वह बैशाखी भी प्रियंका के आने से टूट जाएगी। महागठबंधन के दल कांग्रेस के वजूद को बचाने के लिए कभी कांग्रेस का साथ नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि इन सभी दलों का जनाधार कांग्रेस का जनाधार छीन कर बना है। राजनीतिक दल अपने अस्तित्व को समाप्त करने के लिए कभी कांग्रेस से समझौता नहीं करेंगे। यही कारण है कि सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं दी है, और बिहार में तीसरे स्थान वाली क्षेत्रीय पार्टी के रूप में इसके साथ व्यवहार किया जा रहा है। कांग्रेस को मजबूत करने के लिए यदि राहुल गांधी ने प्रियंका को मैदान में उतारा है तो इसका साफ मतलब है कि महागठबंधन के दल कांग्रेस को किसी भी कीमत पर मजबूत नहीं होने देंगे।

विपक्षी दलों के मतों का बंटवारा बढ़ेगा
आज कांग्रेस के सामने नेतृत्व की चुनौती के साथ-साथ अपने जनाधार को बढ़ाने की भी है। क्योंकि विस्तृत जनाधार ही कांग्रेस के भविष्य को सुरक्षित कर सकता है। अब तक कांग्रेस विपक्षी दलों के महागठबंधन के सहारे अपने जनाधार को बचाने का काम कर रही थी, लेकिन अचानक प्रियंका वाड्रा के प्रवेश ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस अब अपने जनाधार को बचाना नहीं बल्कि बढ़ाना चाहती है। इन परिस्थितियों में समान जनाधार वाले दलों के बीच में मत विभाजन के हालात बढ़ जाएंगे। आज कांग्रेस की वह स्थिति नहीं है कि कुछ जातियों या समूहों पर उसका वर्चस्व है। अब तो सभी दलों की हर जाति और समूह में अपने -पने तरीके से पैठ है। इसलिए प्रियंका का आना विपक्ष की राजनीति के लिए दुःखद है।

प्रियंका के आने से कांग्रेस के वंशवादी राजनीति की छवि मजबूत होगी
प्रियंका वाड्रा के महासचिव बनाए जाने पर वंशवाद की राजनीति का आरोप और मजबूत होगा। जनता को यह साफ संदेश जाएगा कि कांग्रेस पार्टी सिर्फ और सिर्फ एक ही परिवार की जागीर बनकर रह गयी है। वंशवाद की राजनीति को जिस तरह पिछले कुछ चुनावों में राहुल गांधी धोने का प्रयास कर रहे थे, वह इस कदम से झूठा साबित हो गया। अब कांग्रेस मतलब गांधी परिवार के आरोप का हर जगह जवाब देना पड़ेगा और देश का युवा मतदाता इस तरह से पद और सम्मान देने के आधारों को उचित नहीं मानता है और उसका मुखर विरोधी है। इसलिए एक बड़ा तबका कांग्रेस से बिदक जाएगा।

प्रियंका वाड्रा के आने से कांग्रेस की खुशी क्षणिक है, इसका नुकसान चुनाव के बाद पार्टी के सामने आएगा। यह कदम उस नशे के समान है, जिसमें मजा तो तुरंत आता है, लेकिन बाद में नुकसान होना निश्चित होता है।

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