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पीएम मोदी को ‘सुपर ग्लोबल लीडर’ के रूप में देखना चाहता है यूरोपियन यूनियन

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अमेरिका से बिगड़े संबंधों के चलते यूरोपियन यूनियन भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर लालायित नजरों से देख रहा है। इनको लगता है कि अगर ऐसे दौर में प्रधानमंत्री मोदी का साथ मिल जाए तो वो अमेरिका की बदली हुई नीतियों का सामना करने में अधिक सक्षम हो सकेंगे। उनके लिए सकारात्मक बात ये है कि पीएम मोदी ऐसे ही वक्त में जर्मनी, फ्रांस और स्पेन जैसे यूरोपीय देशों की यात्रा पर पहुंचे हुए हैं। दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति अपनाई है, उससे यूरोपियन यूनियन खुद को असहज महसूस कर रहा है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच पैदा हुई इस खाई के बीच पुल तैयार करने का पीएम मोदी के पास एक बहुत बेहतर मौका है। पीएम मोदी के वैश्विक व्यक्तित्व के माध्यम से भारत एकबार फिर उसी स्थिति में पहुंचने में सक्षम हो सकता है, जिसे आदिकाल से विश्व गुरु कहा जाता रहा है।

भारत को अमेरिका के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है
अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच बढ़ते अविश्वास के बीच प्रधानमंत्री मोदी की यूरोप यात्रा बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। पीएम ने अपने दौरे का पहला पड़ाव जर्मनी को बनाया जो यूरोपियन यूनियन के सबसे प्रमुख देशों में से है। जर्मनी, स्पेन के अलावा वो फ्रांस और रूस की भी यात्रा करेंगे। यूनियन के सभी राष्ट्र अभी ऐसे देश की तलाश में हैं जो व्यापार और सामरिक हितों की रक्षा में उनके साथ खड़ा हो सके। ऐसे में उन्हें प्रधानमंत्री मोदी से बढ़िया विकल्प नहीं दिख रहा। भारत से दोस्ती को लेकर यूरोपीय देशों की बेचैनी एक प्रतिष्ठित जर्मन समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट से महसूस किया जा सकता है। ‘पूरब से उम्मीद’ (भारत को वरीयता) शीर्षक से छपी इस रिपोर्ट में लिखा है कि जर्मन सरकार के प्रवक्ता कई बार जवाब दे चुके हैं कि अगर G-7 का नेतृत्व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप नहीं करते हैं, तो क्या नरेंद्र मोदी करेंगे? इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी ग्लोबल लीडर के तौर पर कई को पीछे छोड़ चुके हैं। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि वह सभी सुपरपावर्स का नेतृत्व कर सकते हैं। शायद पीएम मोदी ने भी उनकी इस आकुलता को भांप कर ही अपना कार्यक्रम तैयार किया है।

यूरोपियन यूनियन का अमेरिका से मोहभंग
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की नीतियों ने यूरोपियन यूनियन कई तरह से परेशानियों में डाल रखा है। वो हर मसले पर अब सिर्फ और सिर्फ अपने दृष्टिकोण से सोचने लगा है। वो पुरानी दोस्ती, पुराने संबंधों पर तभी तक टिका रहना चाहता है, जबतक उसमें अमेरिका को लाभ हो। ऐसा नहीं होने पर वो किसी से भी मुंह फेरना शुरू कर दिया है। यूरोपियन यूनियन को डर है कि अगर ट्रंप ने इसी नीति को आगे बढ़ाया, तो अमेरिका के साथ निभा पाने में मुश्किल होगी। इसका उदाहरण ये है कि जब राष्ट्रपति अपनी पहली विदेश यात्रा के दौरान जी-7 सम्मेलन के लिए इटली के सिसली पहुंचे तो उन्होंने जर्मनी के साथ व्यापारिक रिश्तों पर नाखुशी जता दी। इसका परिणाम ये हुआ कि जर्मन चांसलर अंजेला मर्केल भी भड़क गईं और अमेरिकी साये से अलग यूरोपियन यूनियन की अपनी पहचान तलाशने में जुट गईं। मर्केल के साथ-साथ यूरोपियन यूनियन के बाकी नेताओं को महसूस हुआ कि अब अपने पुराने साथी अमेरिका पर भरोसा करने लायक स्थिति नहीं रह गई है। यूं समझ लीजिए कि एक ही झटके में उनका अमेरिका से मोहभंग हो चुका है।

यूरोपियन युनियन का अमेरिका से भरोसा उठने के कई कारण हैं-

• इटली की जी-7 की बैठक में अमेरिका ने कई मसलों पर यूरोपियन यूनियन के प्रमुख देशों से अपनी स्पष्ट असहमति जता दी।

• जलवायु परिवर्तन (पेरिस समझौता) पर आगे बढ़ने से अमेरिका ने मना कर दिया।

• मुक्त व्यापार के प्रति संकल्प से अमेरिका पीछे हटता दिखाई दिया।

• नाटो समझौते के अहम संकल्पों से भी अमेरिका पीछे हटता दिखा। अमेरिका ने नाटो समझौते की धारा 5 के बारे में कोई आश्वासन नहीं दिया। इस धारा में प्रावधान है कि, किसी मित्र राष्ट्र के खिलाफ यदि हमला होता है तो यह हमला सभी मित्र राष्ट्रों के खिलाफ हमला माना जाएगा।

• अमेरिका के रुख में ये बदलाव ऐसे समय में नजर आया जब यूरोप में रूस की दखलंदाजी बढ़ रही है। यूरोप के कई देश रूस के इस रवैये काफी नाराज हैं।

• अमेरिकी राष्ट्रपति के रुख से यूरोपियन यूनियन में ये संदेश गया है कि, अब अमेरिका विश्व की अगुवाई करने के लिए तैयार नहीं हैं।

यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला, यूरोपियन यूनियन को भारत की मदद की जरूरत है और दूसरा, पीएम मोदी के तरकश में उनसे संबंधों को ठोस बनाने के लिए कई तीर हैं-

जीएसटी —यूरोपिय देशों को भारत की कर प्रणाली से काफी परेशानी थी। पीएम मोदी ने जीएसटी बिल को पास कराकर उनकी ये दिक्कतें दूर कर दी हैं।

विदेशी निवेश- भारत में इसकी लंबी प्रक्रिया यूरोपियन यूनियन के देशों के लिए परेशानी का कारण थीं। मोदी सरकार ने इसी को ध्यान में रखकर फॉरन इंवेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड को ही खत्म कर दिया। माना जा रहा था कि बोर्ड की लालफीताशाही के चलते विदेशी निवेशकों को मुश्किलें आ रही थीं। इसके बाद विदेशी निवेश पर तेजी से निर्णय लिये जाने की उम्मीद बढ़ी है।

सेवा और सैन्य साजो-समान के क्षेत्र में निवेश- भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियों को मेक इन इंडिया के तहत हथियार उत्पादन की अनुमति दी गई है। इसके अलावा सेवा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश खोला जा रहा है। इससे यूरोपियन यूनियन के देश भारत से व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने को लेकर बहुत अधिक उत्सुक हैं।

जलवायु परिवर्तन (पेरिस समझौता)- भारत ने अमेरिका के उलट सभी राष्ट्रों को भरोसा दे दिया है कि वो पेरिस समझौते से पीछे नहीं हटेगा।

भारत-यूरोपियन यूनियन दोनों के लिए बेहतर मौका
ऐसे समय में जब यूरोपियन यूनियन अमेरिका की संरक्षणवादी नीति से परेशान हैं। उन्होंने चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना के मसले पर भारत के पक्ष का समर्थन करना शुरू कर दिया है। उन्होंने चीन की इस परियोजना पर हस्ताक्षर करने से यह कहकर मना कर दिया कि इसमें सभी देशों को शामिल नहीं किया गया और न ही इसमें पारदर्शिता है।, इन देशों ने इस परियोजना से पर्यावरण पर बुरे असर की भी आशंकाएं जताई हैं। यहां ये बताना जरूरी है कि भारत ने बाकी मुद्दों के साथ ही संप्रभुता के मुद्दे पर चीन की इस योजना में शामिल होने से मना कर दिया था।

इन बातों से स्पष्ट है कि भारत और यूरोपियन यूनियन के लिए भी आपसी साझेधारी बढ़ाने के लिए सारी परिस्थितियां अनुकूल हैं। अगर उन्हें बदले परिदृश्य में भारत के साथ की जरूरत है, तो भारत को भी आतंकवाद और व्यापार के मसले पर सबका सहयोग अपेक्षित है। इसीलिए कहा जा सकता है कि मौजूदा परिस्थितियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप यात्रा दुनिया के आर्थिक-कूटनीतिक मानचित्र पर एक नए युग की शुरुआत तो है ही, पीएम मोदी के पास दुनिया के सुपरपावर्स की अगुवाई करने का बेहतर अवसर भी है। 

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