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क्या पश्चिम बंगाल में ममता का आपातकाल है?

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वामपंथ के कुशासन से मुक्ति के लिए पश्चिम बंगाल की जनता ने ममता बनर्जी को चुना। मां, माटी और मानुष के नारे के बीच उम्मीद थी कि प्रदेश में लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी, लेकिन लोग आज ठगे हुए महसूस कर रहे हैं। दरअसल आज प्रदेश में राजनीतिक प्रतिशोध में मारपीट में हत्या, बलात्कार जैसे कृत्य सरेआम किए जा रहे हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला घोटा जा रहा है और लोगों को मताधिकार का भी प्रयोग करने से रोका जा रहा है। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया है कि पश्चिम बंगाल में जो रहा है वह लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अनुकूल नहीं है।

दरअसल 14 मई को पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव होने वाले हैं, लेकिन 34 प्रतिशत उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित घोषित किए जा चुके हैं। जाहिर है पश्चिम बंगाल जैसे लगभग एक तिहाई जनप्रतिनिधियों का बिना चुनाव हुए ही चुन लिया जाना संशय पैदा कर रहा है, क्योंकि ये निर्विरोध निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों में सभी टीएमसी के हैं। सवाल उठ रहा है कि क्या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का आपातकाल है?

पश्चिम बंगाल में गुंडों का आतंक, हत्या और रेप के डर से नहीं हुआ नामांकन
पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में टीएमसी ने बिना एक वोट डाले ही एक-तिहाई से ज्यादा यानि 34.2 प्रतिशत सीटें जीत ली हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि इन सभी ग्रामीण सीटों पर टीएमसी यानि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की दहशत के सामने कोई दूसरी पार्टी उम्मीदवार ही नहीं खड़ा कर पाई। राजनीतिक प्रतिशोध में मारपीट, हत्या, बलात्कार का दूसरा नाम बन चुके बंगाल में दूसरी पार्टी का कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ने का साहस ही नहीं जुटा सका।

34 प्रतिशत उम्मीदवारों के निर्विरोध निर्वाचन पर सुप्रीम कोर्ट ने जताई चिंता
राज्य की 58 हजार 692 पंचायत सीटों में से 20,076 सीटों पर चुनाव नहीं होंगे। राज्य के पंचायत चुनावों के इतिहास में निर्विरोध जीतने का यह ऐतिहासिक रिकॉर्ड है। गौरतलब है कि 2013 में भी उसने कुल 6,274 यानि 10.7 प्रतिशत सीटें निर्विरोध जीती थी। जाहिर है सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि 34 प्रतिशत उम्मीदवारों ने निर्विरोध चुनाव जीतना चिंताजनक  है।

कलकत्ता हाईकोर्ट के निर्णय पर चुनाव आयोग ने उठाए सवाल
पंचायत चुनाव में धांधली की शिकायतों के चलते ही 10 अप्रैल, 2018 को कलकत्ता हाईकोर्ट को वहां मतदान की प्रक्रिया पर अस्थायी रोक लगानी पड़ी थी। हालांकि उच्च न्यायालय के आठ मई के उस आदेश पर भी सवाल उठे हैं जिसमें कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह 23 अप्रैल को अपराह्न तीन बजे तक ऑनलाइन दाखिल किये गए नामांकन पत्रों को स्वीकार करे। इसी के विरोध में  राज्य निर्वाचन आयोग ने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। सवाल उठ रहे हैं कि क्या हाईकोर्ट पर भी किसी तरह का दबाव है?

वामपंथ के 39 साल पर ममता बनर्जी का एक साल पड़ा भारी 
पश्चिम बंगाल में जो हो रहा है ये बेहद हैरान करने वाल  हैं। दरअसल प्रदेश में 1978 से 2017 के बीच हुए पंचायत चुनावों में निर्विरोध जीतने वाले कुल उम्मीदवारों की संख्या 23, 185 है। जबकि सिर्फ 2018 में निर्विरोद जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या 20, 076 है। यानि जो 39 साल में नहीं हुआ वह ममता राज में एक साल में ही हो गया। जाहिर है ये लोकतंत्रिक मर्यादाओं को धता बताते हुए ठेंगा दिखाने वाले आंकड़े हैं।

चुनाव में हर ओर तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशियों का खौफ
गौरतलब है कि 48650 ग्राम पंचायत सीटों में से 16814 सीटें (34.6 प्रतिशत) पर टीएमसी उम्मीदवारों को छोड़कर किसी दूसरे ने नामांकन नहीं किया। जबकि पंचायत समिति की कुल 9217 सीटों में से 3509 यानि 33.2 प्रतिशत सीटों पर टीएमसी को छोड़कर किसी दूसरे ने पर्चा नहीं भरा। इसी तरह से जिला परिषद सदस्य की 825 सीटों में से 203 सीटों यानी 24.6 फीसदी सीटों पर टीएमसी उम्मीदवार को छोड़कर किसी दूसरे ने नामांकन नहीं किया।

पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र की हत्या पर खामोश है मीडिया
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर और न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की पीठ ने इस तथ्य पर गौर किया कि करीब 34 प्रतिशत प्रतिनिधि निर्विरोध पंचायत चुनाव जीत गए हैं। न्यायालय ने इसे चिंताजनक’ बताते हुए राज्य निर्वाचन आयोग को उन्हें विजेता नहीं घोषित करने का निर्देश भी दिया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा चिंता जाहिर करने के बाद भी लुटियंस मीडिया की खामोशी सवालों के घेरे में है। सवाल ये कि क्या मीडिया सिलेक्टिव मुद्दे ही उठाती है? उन मुद्दों को हाथ तक नहीं लगाती जो उनके एजेंडे में फिट नहीं बैठते हैं?

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