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बचती रहीं जिस पहचान से, उसी दलित पहचान ने बनाया मीरा को मोहरा

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बाबू जगजीवन राम भले ही दलित राजनीति के बहुत बड़े नेता थे लेकिन मीरा कुमार ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से खुद की ‘दलित’ से अलग सामान्य वर्ग की पहचान बनाई। इसी पहचान के साथ अब तक मीरा कुमार ने खुद को आगे बढ़ाया लेकिन मीरा कुमार की पार्टी कांग्रेस उन्हें दलित पहचान के दायरे में ही घेरकर रखना चाहती है। देश में राजनीतिक हाशिये पर खड़ी कांग्रेस ने अपनी जैसी कुछ सहयोगी पार्टियों के साथ मिलकर दलित जाति की नेता करार देते हुए मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया।

मीरा कुमार की तमाम योग्यता, उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने के लिए केवल और केवल उनके पिता की जाति को ध्यान में रखा गया। राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनना गर्व का विषय हो सकता था लेकिन कांग्रेस ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने के लिए दलित होने की दलील देकर मीरा कुमार के जीवनभर की मेहनत और त्याग को मिट्टी में मिला दिया।

आज आरक्षण और आरक्षण के जरिये मिलने वाली सुविधाओं का लाभ लेने के लिए दूसरी जातियों के कई लोग भी खुद को दलित साबित करने में जुटे हैं। ऐसे देश और समाज में मीरा कुमार जैसी शख्सियत बहुत कम हैं जो दलित जाति को हथियार नहीं बनाती हैं, दलित के नाम पर मिलने वाले वाले आरक्षण का लाभ नहीं लेती हैं। इसीलिए उन्होंने अपने नाम के आगे न पिता के जातिगत टाइटल का इस्तेमाल किया और न ही विवाह के बाद पति की जातिगत टाइटल। वह मीरा कुमार रहीं… कुमार टाइटल किसी जाति की पहचान नहीं है।

मीरा कुमार ने 1970 में सिविल सर्विसेज परीक्षा पास कीं और उसमें अपनी योग्यता के बल पर टॉप-10 में जगह बनाईं। वह भारतीय विदेश सेवा में नियुक्त हुईं। यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि उन्होंने सिविल परीक्षा में दलित कोटे का इस्तेमाल नहीं किया। सामान्य प्रतियोगी की हैसियत से परीक्षा पास की थी। यानी नाम और करियर में उन्होंने दलित पहचान से अलग नई पहचान बनाईं। नई पहचान और मजबूत हो, इसके लिए उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया। हालांकि उन्होंने पति की जाति को भी अपनी पहचान नहीं बनाई, वह हमेशा सामान्य ही रहीं।

वर्ष 2008 में मीरा कुमार जब केंद्रीय सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्री थीं, तब बाबू जगजीवन राम की जन्म शताब्दी समारोह मनाया जा रहा था। बीबीसी न्यूज बाबू जगजीवन राम पर एक कार्यक्रम करना चाहता था। इस सिलसिले में उसे मीरा कुमार से एक साक्षात्कार चाहिए था। बीबीसी संवाददाता मोहन लाल शर्मा ने बताया कि मार्च महीने की बात है, बड़ी मुश्किल से मीरा कुमार का वक्त मिला। तय समय पर साक्षात्कार शुरू हुआ। सामान्य शिष्टाचार के बाद मैंने टेपरिकॉर्डर ऑन किया और पहला सवाल किया… एक पिता के रूप में बाबूजी कैसे थे? मीरा कुमार ने अपने कुछ संस्मरण सुनाए। कैसे याद करती हैं आप ‘बाबूजी’ को ये मेरा दूसरा सवाल था। इस सवाल के बाद मैंने तीसरा सवाल पूछना शुरू किया… बाबू जगजीवन राम भारत की दलित राजनीति के सबसे बड़े नेता थे। आजादी के बाद क्या…

बीबीसी संवाददाता मोहन लाल कहते हैं कि मैं सवाल पूरा कर पाता, उससे पहले ही मीरा कुमार ने मुझे रोक दिया और कहा अपना रिकॉर्डर बंद कीजिए। मैंने कहा कि मुझे सवाल तो पूरा करने दीजिए… । उन्होंने कहा, ‘मुझे आपसे बात नहीं करनी… अब आप जाएं…’। इसके बाद मीरा कुमार उठ गईं और मैं उनका चेहरा देखता रह गया। खैर। रेहान फजल ने बाबू जगजीवन राम पर रेडियो कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम में उन दो सवालों के जवाब रखे गए जो मीरा कुमार ने दिए थे।

एक दलित राजनेता की बेटी मीरा कुमार दलित राजनीति के सवाल पर नाराज होकर इंटरव्यू नहीं देती हैं। मगर विडंबना देखिए कि दलित के नाम पर राजनीति करते हुए कांग्रेस और अन्य पार्टियों ने मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाने की घोषणा की और मीरा कुमार ने इस उम्मीदवारी को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया।

समाज में विरले होते हैं जो विरासत की सुविधाओं का परित्याग करते हैं और अपने बलबूते अपनी पहचान बनाते हैं। मीरा कुमार ने अब तक जिस दलित राजनीति से खुद को बचाकर रखा था, आज उसकी शिकार हो गईं। मीरा कुमार की कविता “ग्यारहवीं दिशा” की पंक्तियों के साथ कलम को विराम दे रहा हूं कि दिशाएं दस हैं / चार मुख्य, चार कोण और एक आकाश और एक पाताल। / मगर मुझे तो ग्यारहवीं दिशा में जाना है, / जहां आस्थाओं के खंडहर न हों / और बेबसी की राख पर संकल्प लहलहाए! लेकिन जिन भावनाओं को कविता में पिरोया है, उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनने के साथ ही मीरा कुमार ने आस्थाओं का खंडहर बना दिया..उनकी बेबसी की राख पर फिर कोई संकल्प नहीं होगा।

दीपक राजा

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